धर्मांतरण या अस्मिता? ‘कैथोलिक आदिवासी’ शब्द पर झारखंड में उठे संवैधानिक सवाल

आनंद कुमार
Ranchi : डीलिस्टिंग की बढ़ती मांग के बीच कैथोलिक आदिवासी शब्द ने झारखंड में एक नयी बहस छेड़ दी है। कृषि मंत्री शिल्पी नेहा तिर्की की जमशेदपुर में ‘कैथोलिक आदिवासी पंचायत समिति’ में उपस्थिति ने राजनीति में एक भूचाल ला दिया है। इस नये शब्द को लेकर सियासत भी शुरू है और भाजपा ने इस पर काफी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। पिछले दिनों जमशेदपुर में कैथोलिक आदिवासी पंचायत समिति के एक कार्यक्रम में कृषि मंत्री शिल्पी नेहा तिर्की ने भागीदारी की थी। उन्होंने अपने एक्स अकाउंट पर लिखा था , “कैथोलिक आदिवासी पंचायत समिति के द्वारा संत जोसेफ स्कूल परिसर जमशेदपुर में आयोजित कार्यक्रम में शामिल हुई . नई पीढ़ी के लिए आदिवासी परंपरा और संस्कृति की जानकारी के साथ लगाव जरूरी है. देश में आदिवासी समाज वीरता और सामूहिकता का प्रतीक है. आदिवासी समाज को वनवासी की संज्ञा दे कर, उनके अस्तित्व को धूमिल करने की एक साजिश रची जा रही है. इस साजिश का जवाब अपनी संस्कृति से जुड़ाव _ अपनी परम्परा का निर्वहन के साथ समाज का विकास है. इसलिए संविधान को बदलने या कमजोर करने की साजिश के खिलाफ प्रतिकार हम सब का लोकतांत्रिक अधिकार है।”बाबूलाल और चंपाई बोले – चर्च के फरमानों से नहीं चलेगा आदिवासी समाज

इसके बाद से ही पूर्व सीएम बाबूलाल मरांडी और चंपाई सोरेन हमलावर हैं। दोनों ने ‘कैथोलिक आदिवासी शब्द के प्रयोग पर ताज्जुब जताते सवाल भी खड़ा किया है। आदिवासी समाज को इस मामले में जागने और सजग होने की भी अपील की है। बाबूलाल ने कहा है कि ईसाई धर्म में मतांतरण कर चुके कुछ लोग ‘कैथलिक आदिवासी’ जैसे भ्रामक शब्दों का इस्तेमाल कर आदिवासी समाज को गुमराह करने की साजिश रच रहे हैं। पैसों और राजनीतिक स्वार्थ के लालच में मतांतरण कर ईसाई बन चुके ये लोग सिर्फ आरक्षण का अनुचित लाभ उठाने के लिए खुद को आदिवासी बता रहे हैं।
बाबूलाल ने कैथलिक समुदाय को चेतावनी देते कहा कि वे स्पष्ट सुन लें कि उन्हें अपने धर्म का पालन करने की पूरी स्वतंत्रता है। लेकिन यदि लोभ, लालच, भय और साजिश के तहत आदिवासी समाज को मिटाने का षड्यंत्र किया गया, तो इसे कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। आदिवासी समाज चर्च के फरमानों से नहीं चलेगा, बल्कि यह अपनी दिशा सनातन आस्था और सरना स्थल, मांझी थान तथा जाहेर थान जैसे पारंपरिक श्रद्धा केंद्रों से तय करेगा। झारखंड में अब जल्द ही आदिवासी समाज को संगठित कर विदेशी साजिशों को नाकाम करने का आंदोलन प्रारंभ किया जाएगा, ताकि अपनी सांस्कृतिक पहचान और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जा सके। बाबूलाल ने इस मामले में स्थानीय प्रशासन से भी अनुरोध किया है कि ऐसे मामले का संज्ञान लेकर संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों के तहत आवश्यक कारवाई सुनिश्चित करें।
जेएमएम से भाजपा में आये पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन ने सोशल मीडिया पर कहा कि उन्होंने एक नया शब्द सुना- कैथोलिक आदिवासी. कोई इन्हें बताये कि या तो आप कैथोलिक हो सकते हैं या फिर आदिवासी। दोनों एक साथ होना संभव ही नहीं है, क्योंकि संविधान के हिसाब से आदिवासी अनुसूचित जनजाति में आते हैं, जबकि ईसाई अल्पसंख्यक में. नवंबर 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि इसलाम और ईसाई धर्म में जाति व्यवस्था नहीं होती इसलिए धर्म परिवर्तन के साथ ही आप दलित या आदिवासी होने की पहचान खो देते हैं।
चंपाई सोरेन ने कहा कि आदिवासियों की पहचान उनकी विशिष्ट संस्कृति, परंपराओं, भाषा, और जीवनशैली में निहित है। हम पेड़ के नीचे बैठ कर पूजा करने वाले लोग हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक, हमारे जीवन के सभी संस्कारों को पाहन, पड़हा राजा, मानकी मुंडा एवं मांझी परगना पूरा करवाते हैं, जबकि धर्म परिवर्तन के बाद वे लोग इसके लिए चर्च में जाते हैं। वहां मरांग बुरु या सिंग बोंगा की पूजा होती है क्या? जिस किसी ने भी धर्म परिवर्तन कर लिया अथवा आदिवासी जीवनशैली का त्याग कर दिया, उनसे हमें कोई दिक्कत नहीं है। आप जहां हैं, आराम से रहिए, लेकिन हम यह सुनिश्चित करेंगे कि भारतीय संविधान द्वारा आदिवासी समाज को दिए गए आरक्षण के अधिकार में आप अतिक्रमण ना कर सकें। चंपाई ने आदिवासियों से जागने की भी अपील की है।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा था – आदिवासी हिंदू नहीं थे, न कभी होंगे

झारखंड में डीलिस्टिंग की बढ़ती मांग के बीच कैथोलिक आदिवासी शब्द ने नयी बहस छेड़ दी है। भाजपा धर्मांतरण का विरोध करती है और डीलिस्टिंग का समर्थन। ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासी और सरना धर्म कोड की मांग करनेवाले इसका विरोध करते हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सरना धर्म कोड के पक्षधर हैं और कई अवसरों पर कह चुके हैं कि आदिवासी हिंदू नहीं बल्कि प्रकृति पूजक हैं। 20 फरवरी 2021 की देर रात हार्वर्ड इंडिया कांन्फ्रेंस को वर्चुअल माध्यम से संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा था कि – “आदिवासी कभी हिंदू नहीं थे और न ही कभी होंगे” और इस बारे में कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि समुदाय हमेशा से प्रकृति पूजक रहा है और यही कारण है कि उन्हें “स्वदेशी लोगों” में गिना जाता है। हालांकि यह अलग बात है कि हेमंत सोरेन खुद काफी पूजापाठ करते हैं और हाल में जब वे लगातार दूसरी बार भारी बहुमत से चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बने, तो पत्नी कल्पना सोरेन के साथ देश के सभी प्रमुख मंदिरों में पूजा अर्चना करते उनकी तसवीरों ने मीडिया में काफी जगह पायी है।
कार्तिक उरांव ने कहा था – हम हिंदू पैदा हुए हैं और हिंदू ही मरेंगे
ऐसे में अगर आदिवासी हिंदू नहीं हैं, हालांकि तब से वे भारत की धरती पर तब से हैं, जब न तो क्रिश्चियानिटी और न ही इस्लाम का प्रादुर्भाव हुआ था, तो वे कैथोलिक कैसे हो सकते हैं। निषादों के राजा गुह, भील जनजाति की माता शबरी को रामचरित मानस में राम का अनन्य भक्त बताया गया है। महान आदिवासी नेता और इंदिरा गांधी की सरकार में मंत्री रहे स्व कार्तिक उरांव भी धर्मान्तरण के विरोधी थे और उनका स्पष्ट मानना था कि आदिवासी हिंदू हैं। उन्होंने कहा था कि ओ राम ओ राम र के कारण उरांव जनजाति को उसका नाम मिला है। हम हिंदू पैदा हुए हैं और हिंदू ही मरेंगे। तो अगर कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट आदिवासी हो सकते हैं, तो फिर हिंदू आदिवासी, मुसलमान आदिवासी, बौद्ध और जैन, पारसी, सिख और यहूदी आदिवासी भी तो हो सकते हैं. भारत का संविधान हर किसी को अपने मन के अनुसार धर्म को मानने की स्वतंत्रता देता है। लेकिन जहां तक शिक्षा, रोजगार, चुनावी राजनीति और बाकी जगहों पर आरक्षण की बात है, तो उन्हीं अनुसूचित जातियों को आरक्षण मिलता है, जो भारत के मूल धर्म हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख से आते हैं, जबकि आदिवासियों के मामले में ऐसा नहीं है। आदिवासियों को धर्म के नहीं बल्कि नस्ल के आधार पर आरक्षण मिला हुआ है। लेकिन धर्मांतरित आदिवासियों को आरक्षण से वंचित करने के हिमायती लोगों की दलील है कि आदिवासी तभी तक आदिवासी है जब तक वह अपनी परंपराओं, पूजा पद्धति और संस्कृति से जुड़ा हुआ है। आदिवासी समाज की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सामाजिक व्यवस्था और पूजा पद्धति ही है। अपनी जड़ों को छोड़ देनेवाला और दूसरे धर्म और संस्कृति का पालन करनेवाला आदिवासी कैसे हो सकता है। उनका कहना है कि धर्मान्तरण कर चुके लोग, आदिवासियों का वाजिब हक मार रहे हैं।
नवंबर 2024 में क्या कहा था सुप्रीम कोर्ट ने

नवंबर 2024 में, सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया कि धर्मांतरण के बाद अनुसूचित जाति (SC) या अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा नहीं मिलता है। यह निर्णय बताता है कि यदि कोई व्यक्ति हिंदू धर्म से किसी अन्य धर्म में परिवर्तित होता है, तो उसे एससी/एसटी के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं होगी. सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का दर्जा केवल उन लोगों के लिए है जो हिंदू धर्म को मानते हैं। यदि कोई व्यक्ति हिंदू धर्म से किसी अन्य धर्म में परिवर्तित होता है, तो उसे एससी/एसटी के रूप में संवैधानिक संरक्षण नहीं मिलेगा. प्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि कोई व्यक्ति केवल आरक्षण का लाभ लेने के लिए धर्म परिवर्तन नहीं कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता है, तो उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा, भले ही वह पहले एससी/एसटी था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि एससी/एसटी की स्थिति केवल हिंदू धर्म के मानने वालों के लिए ही है.
आदिवासियों को कब मिलेगी उनकी धार्मिक पहचान?
हमारा धर्म क्या है? यह सवाल आदिवासी समाज हमेशा से करता आ रहा है. लेकिन उसको आज तक इस सवाल का जवाब नहीं मिला. कई बार इसके लिए मांग उठी, प्रदर्शन हुए, नेताओं ने वादे किए लेकिन सब कुछ बस हवा हवाई ही रहा. साल 2011 की जनगणना के आधार पर देश में आदिवासियों की संख्या 10 करोड़ 42 लाख 81 हजार 034 थी। यानि देश की कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत. आदिवासी हमेशा से मांग करते आए हैं कि उन्हें एक अलग धर्म का अधिकार दिया जाए. इसके लिए वह दिल्ली और देश भर में कई बार प्रदर्शन भी कर चुके हैं.
आदिवासियों का मानना है कि वह इस देश के मूल नागरिक हैं और उनका जन्म से लेकर मृत्यु तक सब कुछ करने के लिए एक अलग रीति-रिवाज और परंपरा है. हालांकि पूरे देश का आदिवासी समाज एक जैसा नहीं है. यहां भी हर राज्य के आदिवासियों की परम्पराएं अलग-अलग हैं. आदिवासी समाज अब धीरे-धीरे बंट रहा है. ज्यादातर आदिवासी आज ईसाई धर्म में तब्दील हो गए हैं. साथ ही कुछ ने खुद को हिंदू धर्म का मान कर उसे स्वीकार कर लिया है. लेकिन आज भी एक बड़ा हिस्सा अपनी पहचान के लिए लड़ाई लड़ रहा है.
बड़ा सवाल : कैसे हल होगा पहचान के विस्थापन का सवाल
ऐसे में आदिवासी के धर्म की बहस केवल शब्दों की नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अस्मिता, सांविधानिक अधिकार और राजनीतिक इच्छाशक्ति का मुद्दा है।
• कैथोलिक आदिवासी’ शब्द धर्म-स्वातंत्र्य के दायरे में आता है या आरक्षण नीति की आत्मा के खिलाफ?
• बहुसंख्यक आदिवासियों की सुरक्षा एवं प्रतिनिधिमंडल कैसे सुनिश्चित होगा?
• Sarna धर्म कोड के बिना आदिवासियों की वास्तविक जनसंख्या और परंपरागत पहचान का विस्थापन कैसे रोका जा सकेगा?
इन सवालों का हल राजनीतिक सहमति, न्यायपालिका के निर्णय और जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की प्राप्ति से ही निकलेगा। मगर ऐसा होगा कब.. ये बड़ा सवाल है।
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