रावण रथी, विरथि रघुवीरा..
‘क्या राम सचमुच विजयी हुए थे?’ – यह सवाल केवल एक पौराणिक विमर्श नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक ताकतों के संघर्ष का प्रतीक भी है। आपातकाल में छपे एक लेख से प्रेरित यह विश्लेषण सत्ता और प्रतिरोध की गहराइयों को उजागर करता है।

श्रीनिवास
कभी मैंने एक छोटा-सा पीस लिखा था- ‘क्या राम सचमुच विजयी हुए थे?’ दरअसल वह आपातकाल के समय 1976 में साहित्यिक पत्रिका ‘कादंबिनी’ के दशहरा अंक में छपे एक लेख का शीर्षक था; उसी लेख से प्रेरित भी। कठोर सेंसरशिप के बावजूद तब भी कुछ संपादक हिम्मत दिखाते थे. लेखक का नाम याद नहीं. सागर विवि के प्राध्यापक थे, इतना याद है। लेख में संदेह व्यक्त किया गया था कि कहीं बाल्मीकि और तुलसीदास ने यह सोच कर तो राम को विजयी नहीं दिखा दिया था कि जनता का मनोबल न टूट जाये! अन्यथा कहां हर तरह से शक्तिशाली मायावी रावण और कहां रीछ-वानर और आदिवासियों की सेना के साथ राम और लक्ष्मण! ‘रावण रथी, विरथि रघुवीरा..’ वे भला कैसे जीत सकते थे!
फिर वे उस समय की राक्षसी ताकतों (सत्ताधारियों) और उनसे मुकाबला कर रहे अपने समय के ‘राम’ को याद करते हुए सवाल करते हैं कि क्या वे सफल हो सकेंगे?
लेखक ने न उस समय की सरकार या इंदिरा गांधी का नाम लिया, न जेपी का। लेखक के मन में न भी हो, लेकिन हम जैसों के लिए या बहुतों के लिए संकेत स्पष्ट था। और हमारे समय के ‘राम’ भी विजयी हुए। आज एक बार फिर ‘रावण रथी, विरथि रघुवीरा..’ जैसे परिदृश्य का अनुभव हो रहा है। आज के ‘राम’ के सामने तो कहीं अधिक कठिन चुनौती है, क्योंकि ‘रावण’ कहीं अधिक शक्ति और अधिकार से लैस है। अत्याधुनिक तकनीक और उसे ‘अवतार’ मानने वालों की बड़ी फौज भी। मगर यह यकीन बनाये रखना चाहता हूं कि यदि रीछ-वानर आदि आज भी एकजुट हो गये, तो ‘आसुरी’ ताकतों को पराजित करना बहुत कठिन नहीं होगा! इसमें ‘राम’ कौन और ‘रावण’ कौन, यह अनुमान पाठकों पर छोड़ता हूं।
संभव है, इसमें किसी को ‘पप्पू’ घोषित एक शख्स की ओर इशारा और उसका महिममंडन दिखे। हालांकि मुझे वही लगभग अकेला चुनौती देता दिख रहा है। और विडंबना यह कि यह उसी इंदिरा गांधी के वंश का है, जिसके खिलाफ हमारे समय का ‘विरथि राम’ खड़ा था और उसके पीछे हम जैसे हजारों पागल, जिन्हें आज ‘अर्बन नक्सल’ घोषित कर दिया गया है!
डिस्क्लेमर : ये लेखक के अपने विचार हैं। “जन-मन की बात” का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है।
