Bal Krishna and Shiva Story : जब भोले बाबा को बालकृष्ण के दर्शन की लालसा हुई – एक अद्भुत लीला कथा
Bal Krishna and Shiva Story – जब भगवान शिव भी तड़प उठे थे बालकृष्ण के एक दर्शन को…
और जब कृष्ण ने उन्हें मुस्कुराकर अपनी गोद में जगह दी।
वैराग्य और वात्सल्य की इस लीला को पढ़िए – प्रेम की सबसे सुंदर भाषा में..

Bal Krishna and Shiva Story : भाद्रपद शुक्ल द्वादशी की शुभ वेला थी। ब्रह्मांड के नायक, योगियों के स्वामी भगवान शिव, आज अपने ह्रदय में एक बाल स्नेह की आकांक्षा लिए गोकुल नगरी पधारे थे। उनके नेत्रों में आज कोई तांडव की ज्वाला नहीं, बल्कि वात्सल्य की कोमल तरंगें थीं। वे बालकृष्ण के बाल रूप के दर्शन को व्याकुल थे।
भोलेनाथ सीधे आकर नंद भवन के द्वार पर खड़े हो गए। वहीं एक दासी आई और बोली—
“शिवजी, यशोदा मैया ने भिक्षा भेजी है, स्वीकार करें और हमारे लाला को आशीर्वाद दें।”
शिव मुस्कराए, बोले—
“मैं भिक्षा नहीं चाहता, न ही कुछ मांगता हूँ। मुझे तो केवल बालकृष्ण के दर्शन चाहिए। बस वही मेरे लिए सबसे बड़ा वरदान होगा।”
दासी ने यह बात जाकर यशोदा माता को बताई। शिवजी ने भी अंतर से पुकार लगाई—
“हे माता! हे लालनहार! अपनी गोद के रत्न की एक झलक तो दिखा दो। मैं उस रूप का प्यासा हूँ।”
मातृप्रेम में डूबी यशोदा खिड़की से झाँकी और बोलीं—
“हे योगी! तुम्हारे गले में साँप लिपटा है, सिर पर जटाएं हैं, भस्म लिपटे हो। मेरे लाला तो अभी नन्हे हैं, कहीं डर न जाएं!”
शिव मुस्कराकर बोले—
“माता! जिसे आप बालक मान रही हैं, वो मृत्यु के भी भय को हरने वाला है। ब्रह्मा का भी ब्रह्म, काल का भी काल है वह। उसकी दृष्टि में मैं अजनबी नहीं।”
यशोदा फिर भी ना मानीं। तब शिव बोले—
“अब मैं यहाँ से नहीं हटूंगा। मैं तप में लीन हो जाऊँगा। समर्पण में समाधि लगाऊँगा।”
Bal Krishna and Shiva Story
उधर बालकृष्ण सब जान चुके थे। उन्होंने जान लिया कि उनके भोले बाबा द्वार पर खड़े हैं, लेकिन मइया उन्हें दर्शन नहीं लेने दे रहीं। वे समझ गए कि यदि शिव समाधि में चले गए, तो वह सहस्रों वर्षों तक नहीं खुलेगी।
कन्हैया जोर-जोर से रोने लगे। वे उस बाल की तरह नहीं, एक साक्षात देव की तरह रो रहे थे। यशोदा चकित हुईं। उन्होंने समझा – यह साधारण रोना नहीं, यह तो कोई पूर्वजन्म का संबंध पुकार रहा है।
आखिरकार मातृहृदय पिघला।
यशोदा मैया कन्हैया को गोद में लेकर बाहर आईं। भोलेनाथ की आँखों में ज्योति दौड़ पड़ी। उन्होंने नज़रें झुकाईं, और उस नन्हे प्रभु को प्रणाम किया।
परंतु, केवल दर्शन से मन भरता है क्या?
भोले बाबा की तो इच्छा थी – लाला को गोदी में लेने की।
शिव बोले—
“माता, आप मुझसे पूछ रही थीं न कि आपके लाला की रेखाओं में क्या लिखा है? यदि मुझे उसकी हथेलियाँ देखनी हैं तो उसे मेरी गोदी में दीजिए।”
यशोदा ने मुस्कराकर बालकृष्ण को शिव की गोद में रख दिया।
और फिर जो हुआ… उसे देख गोकुल भी मुस्कराया, ब्रह्मांड भी झूमा।
कन्हैया खिलखिला उठे।
कभी भोले बाबा की भस्म लगे गाल पर खरोंच मारते,
तो कभी उनकी जटाओं को खींचते।
कभी उनकी दाढ़ी में उंगलियां फँसाते।
वो दृश्य था – प्रेम का, आराधना का, पुनर्मिलन का।
वह योग का योग था,
जहाँ एक ओर वैराग्य था, तो दूसरी ओर वात्सल्य।
जहाँ भोले को बाल रूप में विष्णु मिल गए।
और कृष्ण को अपनी शिव-भक्ति का पुरस्कार।
यह कथा हमें क्या सिखाती है?
- ईश्वर स्वयं भी दूसरे रूप के दर्शन को लालायित हो सकते हैं।
- भक्ति का भाव जब सच्चा हो, तो मातृत्व भी पिघल जाता है।
- और सबसे बढ़कर— ईश्वर, ईश्वर से भी प्रेम करते हैं।
यह कथा शिव और बालकृष्ण के मिलन की है, जो भारत के पुराणों और लोक कथाओं में लोकप्रिय रूप से प्रचलित है। हालांकि इसका स्पष्ट उल्लेख “श्रीमद्भागवत”, विष्णु पुराण या अन्य प्रमुख वैदिक ग्रंथों में नहीं मिलता, लेकिन यह भागवत पर आधारित लोकश्रुतियों और संत साहित्य (विशेषतः निंबार्क, वल्लभ और गोकुलधाम परंपरा) में बहुत श्रद्धा से सुनाई जाती है।
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