November 22, 2025

विश्लेषण | डीजीपी की कुर्सी पर बहस: सत्ता, सेवा और संविधान के तिहरे जाल में उलझा झारखंड

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झारखंड के डीजीपी अनुराग गुप्ता को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच बढ़ता विवाद अब संवैधानिक और प्रशासनिक संकट का रूप ले रहा है। जानिए सेवा विस्तार के इस मुद्दे का निष्पक्ष विश्लेषण।

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Ranchi : झारखंड के डीजीपी अनुराग गुप्ता को सेवा विस्तार देने के राज्य सरकार के फैसले ने एक साधारण प्रशासनिक निर्णय को संवैधानिक और राजनीतिक टकराव में तब्दील कर दिया है। यह सिर्फ एक अफसर की नियुक्ति का मामला नहीं रह गया है, बल्कि यह केंद्र-राज्य संबंध, प्रशासनिक पारदर्शिता, और संवैधानिक मर्यादाओं के परीक्षण की कसौटी बन चुका है।


केंद्र और राज्य की भिन्न दृष्टि: दो धाराएं, एक अफसर

राज्य सरकार का दावा है कि अनुराग गुप्ता को 2 फरवरी 2025 से दो वर्षों का सेवा विस्तार दिया गया है, जिसे कैबिनेट की मंजूरी प्राप्त है। इसके लिए उसने 8 जनवरी 2025 को नया नियम भी अधिसूचित किया।

वहीं, केंद्र सरकार साफ कह चुकी है कि सेवा विस्तार मान्य नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन के अनुसार डीजीपी की नियुक्ति के समय अफसर की सेवा में कम से कम 6 महीने का कार्यकाल शेष होना चाहिए। अनुराग गुप्ता को फरवरी में डीजीपी बनाया गया जबकि वे अप्रैल में रिटायर हो गये।

इसका नतीजा ये हुआ कि अनुराग गुप्ता की मई माह की सैलरी रोक दी गई, क्योंकि केंद्र और प्रधान महालेखाकार (AG ऑफिस) के अनुसार, वे 30 अप्रैल को सेवानिवृत्त हो चुके हैं।


कानून और संविधान की कसौटी पर खड़ा राज्य सरकार का फैसला

अगर अनुराग गुप्ता की नियुक्ति और सेवा विस्तार सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों और ऑल इंडिया सर्विस रूल्स के विपरीत है, तो यह संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन बनता है। वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि यह एक संघीय ढांचे की अस्मिता से जुड़ा मसला है, जिसमें केंद्र और राज्य को एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए।

ईटीवी भारत की एक खबर में वरिष्ठ पत्रकार मधुकर को कोट करते हुए कहा गया है कि :

“संविधान की भावना यह नहीं है कि एक राज्य सरकार किसी अफसर को केंद्र के विरोध के बावजूद कुर्सी पर बनाए रखे।”


राजनीतिक हित या प्रशासनिक लाचारी?

यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि एक समय जिस अफसर के खिलाफ मौजूदा सरकार ही मुखर रही थी, अब वही सरकार सेवा विस्तार देकर आखिर क्या संदेश देना चाहती है?

क्या यह प्रशासनिक विवशता है या कोई राजनीतिक समीकरण?
क्या सरकार ने जनता को इस बदलाव का कारण बताया है?

वरिष्ठ पत्रकारों का कहना है कि यह स्थिति राजनीतिक पक्षपात और अफसरशाही में पसंद-नापसंद की ओर इशारा करती है।


प्रेस्टीज इशू बन गई है कुर्सी?

ईटीवी भारत की एक रिपोर्ट में चंदन मिश्रा जैसे जानकार मानते हैं कि केंद्र से टकराकर राज्य सरकार ने इस नियुक्ति को एक प्रतिष्ठा का मुद्दा बना दिया है, जिसका नुकसान अनुराग गुप्ता की छवि को भी हो रहा है।

“जब वेतन नहीं मिल रहा, केंद्र नहीं मान रहा, कोर्ट में मामला है—तो डीजीपी खुद ही पद छोड़ने का नैतिक साहस क्यों नहीं दिखा रहे?”

यह स्थिति स्वयं अधिकारी की नैतिकता और प्रशासनिक जिम्मेदारी पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है।


बाबूलाल मरांडी की चुनौती और अदालत की प्रतीक्षा

नेता प्रतिपक्ष बाबूलाल मरांडी ने सेवा विस्तार को झारखंड हाईकोर्ट में चुनौती दी है। उनका कहना है कि यह नियुक्ति नियमों के विरुद्ध है और अदालत को इसपर संज्ञान लेना चाहिए।

हालांकि राज्य सरकार का कहना है कि कोर्ट का निर्णय आने तक स्थिति यथावत रहेगी। मगर क्या संवैधानिक प्रश्नों पर सिर्फ अदालती निर्णय का इंतज़ार करना ही पर्याप्त है?


सवालों के घेरे में सेवा, नीयत और नियमन

  • क्या डीजीपी का बिना वेतन सेवा में बने रहना नैतिक रूप से सही है?
  • क्या राज्य सरकार केंद्र की अवहेलना करके राजनीतिक संदेश देना चाहती है?
  • क्या अदालत के निर्णय से पहले ही यह नियुक्ति अमान्य हो चुकी है?
  • क्या यह प्रकरण आने वाले समय में राज्य सरकार के खिलाफ मिसाल बनेगा, जैसे अतीत में कई नियुक्तियां बनीं?

यह सिर्फ कुर्सी का नहीं, प्रशासनिक मूल्य प्रणाली का सवाल है

अनुराग गुप्ता की सेवा विस्तार की गुत्थी अब राज्य और केंद्र के बीच एक संवैधानिक परीक्षण बन चुकी है। यह फैसला न केवल एक अफसर के भविष्य, बल्कि प्रशासनिक तंत्र की पारदर्शिता, संघीय संतुलन और राजनीतिक गरिमा पर भी असर डालेगा।

इनपुट : ईटीवी भारत

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