November 22, 2025

बयान से आगे की बात : Jairam Mahto, कंपनियों का विरोध और झारखंड की सियासी जकड़न

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Jairam Mahto ने CCL, BCCL, Tata, Rungta जैसी कंपनियों को ‘नई ईस्ट इंडिया कंपनी’ बताया है। क्या यह बयान जनहित का प्रतिनिधित्व करता है या झारखंड की पुरानी राजनीति की नई पैकेजिंग है? पढ़ें यह विश्लेषण।

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BCCL, CCL, Tata, Rungta जैसी कंपनियों को लेकर JLKM के अध्यक्ष Jairam Mahto ने कहा कि ये “नयी ईस्ट इंडिया कंपनी”

Jairam Mahto

Anand Kumar
“बीसीसीएल, सीसीएल, रूंगटा, टाटा, ये कंपनियां ईस्ट इंडिया कंपनी के नये रूप हैं। प्रशासन कोयला खनन क्षेत्रों में पंगु बना हुआ है, सिर्फ मूक दर्शक है।” यह बयान जयराम महतो (Jairam Mahto) का है – झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा (JLKM) के अध्यक्ष। वही जयराम महतो (Jairam Mahto) जो आज झारखंड के युवा वर्ग के सबसे आकर्षक चेहरों में से एक हैं। कुड़मी राजनीति में तेजी से आजसू के विकल्प बन रहे हैं।

वे खुद को “क्रांतिकारी” कहते हैं। भगत सिंह उनके आदर्श हैं, लेकिन वे गांधी की बात भी करते हैं। संविधान को सीने से लगाये उनकी तसवीर सोशल मीडिया पर दिखती है लेकिन कभी उनकी बातों में विद्रोह की झलक भी दिखाई देती है। जयराम महतो भी उसी धारा की राजनीति कर रहे हैं, जो कभी झारखंड पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा और आजसू ने की। झारखंडी बनाम बाहरी, 1932 का खतियान, विस्थापन-पलायन की बातें और कंपनियों का विरोध। कुछ दिन पहले नेटवर्क 18 को दिये उनके इंटरव्यू ने बहुत चर्चा बटोरी

जिस तरह से उन्होंने कंपनियों को निशाने पर लिया है, उससे एक बार फिर झारखंड की राजनीति में वह पुराना विमर्श लौट आया है, जिसने इस राज्य को पिछड़ेपन की बेड़ियों में जकड़े रखा।

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जयराम लोकप्रिय हैं, उनके पीछे युवाओं की अच्छी संख्या हैं। वे यूथ ऑइकॉन के रूप में जाने जाते हैं। कभी छत से जंप लगाते औऱ कभी फुटबॉल खेलते उनका वीडियो वायरल होता है, तो कभी रात के अंधेरे में किसी वारदात की जगह पर वे पुलिस को कटघरे में खड़ा करते दिखाई देते हैं, तो कभी चार बच्चे पैदा करने की बात करते हैं. लेकिन जयराम महतो की राजनीति का एक खास पहलू यह है कि वे बार-बार कंपनियों को टारगेट करते हैं।

कंपनियां चाहे सार्वजनिक क्षेत्र की हो अथवा निजी क्षेत्र की जयराम के निशाने पर रहती हैं। इन कंपनियों की तुलना वे ईस्ट इंडिया कंपनी से करते हैं। और सिर्फ जयराम महतो ही नहीं बल्कि झारखंड बनने से बहुत पहले से ऐसी कंपनियां झारखंड नामधारी दलों के निशाने पर रही हैं। और खास कारणों से रही हैं।

Jairam Mahto

झारखंड में औद्योगिक-व्यापारिक घरानों को लेकर एक ऐसी नकारात्मक छवि बना दी गयी है, कि यहां के लोग कंपनियों से नफरत करते हैं। जबकि यही कंपनियां रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत हैं. सीसीएल, बीसीसीएल, डीवीसी और सेल जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां हों या टाटा, रूंगटा और अडाणी जैसे प्राइवेट प्लेयर्स ये सभी या तो खनन करते हैं अथवा स्टील और बिजली बनाते हैं.

इन कंपनियों में आईटी कंपनियों की तरह ह्वाइट कॉलर जॉब ज्यादा नहीं होते। मजदूर, सुपरवाइजर, फोरमैन जैसे लोग ज्यादा होते हैं। कांट्रैक्ट कंपनियों में भी ज्यादातर लोकल लेबर और सुपरवाइजर होते हैं, लेकिन राजनीति के चक्कर में भ्रांति ऐसे फैलाई जाती है जैसे कभी कंपनियों में बाहरी लोग काम कर रहें हैं।

जहां एक्सपर्टीज की जरूरत होती हैं, जहां अनुभव की जरूरत होती है, वहां कोई कंपनी बाहरी भी योग्य लोगों को देखती है। लेकिन कंपनियों के विरोध की राजनीति और भयादोहन की राजनीति में दर्जनों कंपनियां यहां से या तो चली गयीं या एमओयू करके भी नहीं आयीं. एक तो नक्सवाद औऱ खराब कानून-व्यवस्था और ऊपर से ये भीतरी बाहरी की राजनीति में झारखंड 25 साल में भी पूरे देश को सस्ता लेबर और नौकरानियां सप्लाई करनेवाला राज्य बनकर रह गया है।

दूसरी तरफ बेंगलूर, हैदराबाद, पुणे, मुंबई और कोलकाता में कितने झारखंडी रहते हैं। और वे सिर्फ मजदूरी नहीं करते या रिक्शा ठेला नहीं लगाते। वे बड़े मल्टीनेशनल में भी काम करते हैं। बेंगलूर के कुछ इलाके तो लगता ही नहीं कि बिहार झारखंड से बाहर है इधर के इतने लोग रहते हैं वहां लेकिन नेताओं को सिर्फ राजनीति की रोटी सेंकनी है।

देश का 40 फीसदी मिनरल झारखंड में है लेकिन झारखंड में टाटा और सेल के अलावा क्या है। वहीं ओडिशा देखिये. बंगाल देखिये. छत्तीसगढ़ देखिये.. और तो और तमिलनाडु, गुजरात और आंध्र प्रदेश में बड़े स्टील प्लांट हैं। वहां तो आयरन ओर नहीं है। कोयला भी नहीं है। लेकिन प्लांट है। क्यों हैं क्योंकि माहौल है। वहां लोगों में भी विकास की ललक है और नेताओंं में भी। लेकिन झारखंड पिछड़ा है। इसलिए है क्योंकि नेता इसे पिछड़ा रखना चाहते हैं। पहले के नेताओं ने भी भी किया और आज के नेता भी यही कर रहे हैं। क्योंकि अगर विकास हुआ, रोजगार बढ़े तो खतियान और बाहरी-भीतरी की राजनीति को खाद-पानी कहां से मिलेगा।

यह सच है कि इन कंपनियों के संचालन में खामियां रही है/ आगे भी रहेंगी। यह भी सही है कि भूमि अधिग्रहण, विस्थापन, मुआवज़ा और पर्यावरणीय संतुलन जैसे कई मुद्दे हैं, जिन्हें गंभीरता से देखने और उनका सही हल निकालने की ज़रूरत है। लेकिन क्या इन तमाम जटिलताओं के बीच सभी कंपनियों या कॉरपोरेट घरानों को “ईस्ट इंडिया कंपनी” कहना सिर्फ एक उत्तेजक बयान नहीं है? क्या यह वही पुरानी ‘भीतरी-बाहरी’ की राजनीति का नया संस्करण नहीं है?

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झारखंड ने पिछले 50 साल में अलग-अलग दौर में ऐसी राजनीति बहुत देखी है, लेकिन यहां का दुर्भाग्य है कि आज के दौर में भी यह राजनीति चल जाती है। इसके नाम पर वोट मिल जाते हैं। कभी अलग राज्य के आंदोलन में आजसू बना था, तो सूरज सिंह बेसरा चमके थे, फिर उसी आजसू को हाईजैक करके सुदेश महतो ने राजनीतिक दल बना लिया और यही खतियान, यही झारखंडी-गैर झारखंडी करते रहे और 20 साल की राजनीति में कई बार सत्ता की मलाई चाटी, अब ढलान पर हैं। और उस खाली जगह को भरने की कोशिश में जयराम महतो लगे हैं।

वही बोली, वही भाषा जो अस्सी औऱ नब्बे के दशक में हम सुनते थे, रिपीट हो रही है। भले जयराम महतो के पीछे आज जो हुजूम है, उसको ये बातें क्रांतिकारी लगती हों, क्योंकि इनमें ज्यादातर 1995 के बाद की पैदाइश हैं. लेकिन जिन्होंने अस्सी और नब्बे का दौर देखा है. जिन्होंने क्रांति की धारा को सत्ता के आगे नतमस्तक होते देखा है, वे जानते हैं कि ये क्षणिक है।

हर 10-15 साल के बाद ऐसा दौर आता है, कोई नेता उभरता है और फिर धीरे-धीरे मुख्य धारा की राजनीति उसे अपने आप में समाहित कर लेती है. लेकिन इन सबके बीच जो रह जाता है, वह है असली विकास और उन युवाओं का करियर जो सत्ता की राजनीति को संपूर्ण बदलाव का जरिया मान कर उस पर कुर्बान कर देते हैं।

सवाल यह है कि क्या जयराम महतो भी सिर्फ वोट की राजनीति करेंगे, या युवाओं की उम्मीदों को साकार करेंगे? आने वाला वक्त ही बताएगा कि यह क्रांतिकारी सत्ता तक सीमित रहेंगा, या झारखंड को नयी दिशा देगा।

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