Jharkhand Politics : सबसे बड़ी आबादी – फिर भी सत्ता से दूर, क्या कभी किसी कुड़मी के सिर मुख्यमंत्री का ताज सजेगा?
Jharkhand Politics : झारखंड की राजनीति में कुड़मी समुदाय की जनसंख्या सबसे अधिक होने के बावजूद, अब तक कोई मुख्यमंत्री क्यों नहीं बना? क्या भविष्य में यह स्थिति बदलेगी? पढ़ें पूरी राजनीतिक विश्लेषण रिपोर्ट।
Jharkhand Politics : टाइगर बनाम टाइगर की लड़ाई ने इस समाज की राजनीतिक पूंजी को खोखला कर दिया

आनंद कुमार
Jharkhand Politics : झारखंड में आदिवासी राजनीति के खूब चर्चे होते हैं। उठापटक भी खूब रहती है, फिर भी मोटामोटी ये कुनबा सत्ता पक्ष के साथ है। मियां भाई लोग भी मजे में ही है। लेकिन तकलीफ में अभी महतो जी लोग हैं। राज्य बने पच्चीस साल होने को है लेकिन संख्या बल में सबसे बड़ी आबादी वाले कुड़मी-कोयरी भाई लोग आज तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बनवा सके। ये वोट बैंक यहां हमेशा से कुटीर उद्योग की तरह ही चला। बड़े दलों ने यह वोट बैंक आउटसोर्सिंग के ज़रिये ही मैनेज किया। इस कुनबे से कांग्रेस और बीजेपी में कोई भी क़द्दावर नेता नहीं पनपा।
कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष पद पर केशव महतो कमलेश जरूर हैं, लेकिन जहां तक कद की बात है, कद्दावर तो बिल्कुल नहीं हैं। सामाजिक समीकरण साधने के लिए उन्हें बैठा दिया गया है। वैसे भी कांग्रेस में फैसला दिल्ली से ही होता है। झामुमो में भी विनोद बाबू और निर्मल महतो तक इस समुदाय की तूती बोलती थी। गुरुजी के सर्वेसर्वा बनने के बाद कोई कितना भी बड़ा हो जाये, उसे झोला ही ढोना है, मतलब वहां भी कोई चांस नहीं।
तो लब्बो लुआब यही है कि झारखंड की राजनीति में आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी की चर्चा तो हर वक्त होती रहती है, लेकिन इस शोर-शराबे में कुड़मी समाज की आवाज अकसर जब जाती है।कुड़मी समाज का ‘सीएम हो, यह सपना आज भी सपना ही है।
झारखंड में कुड़मी समाज की जनसंख्या कितनी है? इसे लेकर अलग-अलग दावे हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कहती है—असर 25% तक का है। रांची, जमशेदपुर, हजारीबाग, धनबाद, गिरिडीह से लेकर पूरी छोटानागपुर पट्टी में इनका दबदबा है। 81 विधानसभा सीटों में से करीब 35 सीटें कुड़मी फैक्टर से तय होती हैं। 14 लोकसभा सीटों में से 6 पर इनका वोट निर्णायक है।
फिर भी… सत्ता की गद्दी तक ये क्यों नहीं पहुंचे? वजह सीधी है—इस वोट बैंक को हमेशा बड़े दलों ने “कुटीर उद्योग” की तरह चलाया। ठेका मॉडल पर। हर बार यह वोट आउटसोर्सिंग के जरिए मैनेज हुआ। कांग्रेस हो या बीजेपी, किसी ने इस समाज से ऐसा नेता नहीं गढ़ा, जिसकी पहचान पूरे झारखंड में हो।
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कुड़मी समाज जमीन से जुड़ा है, मेहनती है, और अपने स्वाभिमान पर गर्व करता है। लेकिन राजनीति में यही स्वाभिमान अक्सर “अनुशासनहीनता” या अकड़ समझा गया। नतीजा—कुड़मियों का गल्ला तो अलग रहा, मगर गद्दी भी अलग ही रह गई।
इस समाज ने अपनी ढाल के तौर पर “टाइगर” खड़े किये —पहले टाइगर थे जेएमएम के जगरनाथ महतो, दूसरे टाइगर हुए आजसू के सुदेश महतो और फिर आया नया टाइगर यानी जेएमकेएम के जयराम महतो।
लेकिन कहानी यहां और रोचक हो जाती है। क्योंकि टाइगर बनाम टाइगर की लड़ाई ने इस समाज की राजनीतिक पूंजी को खोखला कर दिया। 2024 में डुमरी उपचुनाव ने सबको चौंका दिया। जयराम महतो ने झामुमो की मंत्री और टाइगर जगरनाथ महतो की बेवा को हराकर यह दिखा दिया कि अब कुड़मी समाज सिर्फ “सहायक शक्ति” नहीं रहना चाहता। इसके पहले लोकसभा चुनाव में गिरिडीह से उन्होंने 3.5 लाख वोट हासिल किए। JLKM ने बोकारो में पहला बड़ा अधिवेशन किया। एजेंडा—1932 खतियान, विस्थापन, कुड़माली भाषा, और हाशिये के समुदायों की आवाज़। क्या जय़राम और उनकी पार्टी AJSU को रिप्लेस करेगी? या फिर टाइगरों की आपसी खींचतान जारी रहेगी?
कुड़मी समाज की एक और बड़ी लड़ाई है—आदिवासी यानी ST दर्जे की।
कुड़मियों का कहना है कि हम भी टोटेमिक हैं। हमारी रहन-सहन, पूजा-पद्धति, ग्राम व्यवस्था—सब आदिवासी संस्कृति से मेल खाती है। पिछले 3-4 सालों में इस मुद्दे पर जबरदस्त आंदोलन हुए। रेल रोको, सड़क जाम, सैकड़ों स्टेशन ठप। 2025 में फिर से अनिश्चितकालीन रेल रोको का ऐलान—20 सितंबर से। मांगें—ST दर्जा, कुड़माली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करना, और PESA कानून में संशोधन।
लेकिन… केंद्र सरकार ने अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया। नतीजा? बीजेपी के प्रति नाराजगी बढ़ रही है। भाजपा में इस समाज का कोई बड़ा चेहरा भी नहीं—सिर्फ जमशेदपुर के सांसद विद्युत वरण महतो को छोड़ कर। रामटहल चौधरी और शैलेंद्र महतो जैसे ताकतवर कुड़मी नेताओं को जिस तरह बीजेपी ने हाशिये पर डाला, उससे भी यह समाज भाजपा पर भरोसा नहीं करता।
अब सवाल है—कुड़मी समाज कब तक इंतजार करेगा? और उसे क्या करना चाहिए?
जहां तक मेरी राय है, पहले अपने भीतर की गुटबाज़ी खत्म करनी होगी। टाइगर बनाम टाइगर की लड़ाई से सिर्फ नुकसान होगा। कुड़मी एक वोट बैंक के तौर पर एकजुट हों, जैसे मुसलमान और आदिवासी हैं। किसी पार्टी से डील हो तो कलेक्टिव बारगेनिंग करें और लिखित में आश्वासन लें। मुद्दा आधारित समर्थन दें।
झारखंड में कुड़मी आबादी पारसनाथ पहाड़ की तलहटी से लेकर दामोदर और स्वर्णरेखा के किनारों पर बसी है। अगर झारखंड की राजनीति को नदी की तरह मान लें, तो कुड़मी समाज इस नदी का सबसे चौड़ा पाट है। लेकिन उसका पानी अब तक दूसरों के खेतों को ही सींचता रहा है। अगर अब भी रणनीति नहीं बनी, एकता नहीं आई, तो वही पुराना नतीजा होगा। सबसे बड़ा वोट बैंक लेकिन सबसे लंबा इंतजार।
झारखंड में अगला चुनाव 2029 में होगा। अभी समय है। अगर कुड़मी समाज ने सही चाल चली, तो झारखंड का अगला इतिहास लिखनेवाली कलम भी शायद उसी के हाथ में होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो अगले चुनाव में दो-चार और बच्चा-बुतरू टाइप टाइगर मैदान में उतर जायेंगे और सारे छोटे-बड़े टाइगर एक-दूसरे को पंजा मार कर लहूलुहान करते रहेंगे।
