राजनीति में Image का कमाल : CM रहते विलेन बने रघुवर और जेल से निकल कर नायक बन गये हेमंत
झारखंड की राजनीति में हेमंत सोरेन और रघुवर दास की Image Building रणनीतियों की तुलना। जानें किसने जनता के दिलों में जगह बनाई।
Image : हेमंत सोरेन आज जहां खड़े हैं, झारखंड की राजनीति में फिलहाल कोई उनके कद के आसपास भी नहीं दिख रहा

आनंद कुमार
दिशोम गुरु शिबू सोरेन के निधन से झारखंड की राजनीति में एक युग का अंत हुआ, लेकिन उसी क्षण एक नया अध्याय भी शुरू हुआ — उनके बेटे और मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व का, जो अब पहले से कहीं अधिक परिपक्व, दृढ़ और जनभावनाओं से जुड़े हुए नज़र आ रहे हैं। पिता के बीमार पड़ने से लेकर उनके अंतिम संस्कार और श्राद्ध कर्म तक हेमंत ने जिस तरह पुत्रधर्म निभाया, और साथ ही राज्य की जिम्मेदारियों को भी उठाते रहे, वह अद्भुत है। अपने पुरखों के गांव नेमरा में पुत्रधर्म और राजधर्म दोनों को एक साथ निभाते हुए वे और उनकी पत्नी कल्पना सोरेन जिस तरह परंपराओं और नियमों का पालन कर रहे हैं, वह दिल को छू लेने वाला है।
रोज आती उनकी तसवीरें उनके समर्थक वर्गों में उनकी लोकप्रियता को थोड़ा और बढ़ा देती हैं. शिबू सोरेन बेशक झारखंडी और आदिवासी राजनीति के वह शिखर पुरूष थे, जिनके समकक्ष पिछले पचास वर्षों में कोई नहीं हुआ। जयपाल सिंह मुंडा के बाद गुरुजी ही वह नेता थे, जिन्होंने न केवल अलग झारखंड की मांग को राष्ट्रीय विमर्श तक पहुंचाया, बल्कि आदिवासी अस्मिता को राजनीतिक पहचान दिलाई। लेकिन इसके बावजूद वे जेएमएम को वहां तक कभी नहीं ले जा सके, जहां आज उनकी पार्टी खड़ी है।
2019 में हेमंत सोरेन की अगुवाई वाले महागठबंधन ने बहुमत लाकर भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया था। 2019 में जेएमएम ने 43 सीटों पर चुनाव लड़ा और 30 सीटें जीतीं। ये करीब 70 फीसदी का स्ट्राइक रेट था। और 2024 में तो कमाल ही हो गया। जेएमएम ने हेमंत सोरेन की अगुवाई में अपने इस रिकॉर्ड को न केवल बेहतर किया, बल्कि रिकॉर्ड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की। 2024 में भी जेएमएम ने 2019 की तरह 43 सीटों पर ही चुनाव लड़ा, लेकिन जहां 2019 में उसे 30 सीटें मिली थीं, वहीं 2024 में यह आंकड़ा बढ़कर 34 सीटों पर पहुंच गया। यानी करीब 80 फीसदी का स्ट्राइक रेट। यानी हेमंत सोरन की लोकप्रियता और जेएमएम का आधार ग्रामीण इलाकों और आदिवासी समुदाय के साथ दूसरे वर्गों में भी लगातार बढ़ और मजबूत हो रहा है।
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शिबू सोरेन के नेतृत्व में झारखंड ने तीन चुनाव देखे 2005, 2009 और 2014 का। साल 2005 में 17, 2009 में 18 और 2014 में जेएमएम को 19 सीटें मिली थीं. इस लिहाज से 2019 और 2024 में परिस्थितियां अलग रहीं, क्योंकि तब जेएमएम किसी बड़े प्री पोल अलायंस में शामिल नहीं था। और एक पहलू यह भी था कि 2009 तक झारखंड और यहां के वोटर राजनीतिक रूप से परिपक्व भी नहीं हुए थे। बिहार का प्रभाव कायम था इसलिए राजद, जदयू और समता पार्टी को भी सीटें मिल जाती थीं। लेकिन 2014 से यहां की राजनीति में पूरी तरह झारखंडी अस्मिता और स्थानीय मुद्दे हावी हो गये और जनता ने चुनाव पूर्व गठबंधन को स्पष्ट बहुमत देना शुरू किया।
वैसे यह सिलसिला 2014 में ही शुरू हो गया था, जब भाजपा औऱ आजसू ने मिलकर चुनाव लड़ा था और 43 सीटें जीती थीं। भाजपा ने 73 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 37 सीटें जीती थीं, और आजसू ने आठ सीटों पर चुनाव लड़कर पांच सीटें जीतीं। तो इस लिहाज से झारखंड की जनता ने 2014 से ही क्लीयर मैंडेट देना शुरू किया लेकिन रघुवर दास ने उस गठबंधन का मान नहीं रखा। रघुवर दास को आशंका थी कि आजसू उनकी सरकार को चलाने में अड़चन डालेगा, मंत्री पद को लेकर दबाव बनायेगा, कामकाज में हस्तक्षेप करेगा, इसलिए उन्होंने एक दूसरा रास्ता चुना। उन्होंने बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा प्रजातांत्रिक को ही तोड़ दिया। जेवीएम के आठ में से छह विधायकों को भाजपा के पाले में लाकर उन्होंने अकेले दम पर बहुमत हासिल कर तो लिया, लेकिन आजसू का विश्वास खो दिया और 2019 में उनकी सरकार के पतन का एक बड़ा कारण आजसू भी बना।
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लेकिन इस लेख का विषय यह नहीं है। विषय़ ये है कि शिबू सोरेन के बीमार पड़ने से लेकर उनके श्राद्ध कर्म तक हेमंत सोरेन ने जिस तरह पिता की देखभाल की और जिस तरह वे पुत्रधर्म और राजधर्म दोनों का समन्वय करते दिखाई दे रहे हैं। जिस तरह उनसे मिलने के लिए लोगों की कतार लगी है। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री से लेकर राहुल गांधी, तेजस्वी यादव और अखिलेश सरीखे बड़े नेताओं ने शिबू सोरेन को श्रद्धांजलि दी और उन्हें जो सम्मान और स्थान मिला, वह हेमंत सोरेन की बदौलत ही संभव हो पाया. लेकिन क्या गुरुजी को यही सम्मान और यही विदाई तब भी मिलती, जब जेएमएम सत्ता में नहीं होता? अगर हेमंत सोरेन सीएम नहीं होते।

राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री समेत देश के तमाम नेता गुरुजी के अंतिम दर्शन को आये। राहुल, तेजस्वी, अखिलेश समेत देश के तमाम बड़े उनके गांव पहुंच रहे हैं, तो इसका कारण हेमंत सोरेन ही हैं। और हेमंत सोरेन ने भी दिखाया है कि पुत्रधर्म हो या राजधर्म, वे किसी जिम्मेदारी में पीछे नहीं हैं। वे जितने अच्छे बेटे साबित हुए हैं, उतने ही कर्मठ और जिम्मेदार मुख्यमंत्री भी हैं। 2024 के विधानसभा चुनाव के पहले वे पांच महीने जेल रह कर आये थे। यह उनकी राजनीति का टर्निंग प्वाइंट था, जिसने हेमंत सोरेन को न सिर्फ राजनीतिक रूप से मजबूत बनाया बल्कि एक व्यक्ति और एक नेता के तौर पर भी उन्हें पूरी तरह बदल दिया।
जो हेमंत सोरन जेल गये थे, वह एक युवा मुख्यमंत्री थे, जिसे भाजपा ने भ्रष्टाचार का प्रतीक पुरुष साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उनपर चारों तरफ से हमले हो रहे थे। भाजपा, चुनाव आयोग और ईडी, सीबीआई जैसी एजेंसियां सबकी सब उनके पीछे थीं। दूसरा कोई होता तो टूट जाता, झुक जाता। सरेंडर कर देता। लेकिन हेमंत झुके नहीं। वे कहते रहे कि वे जेल जाना पसंद करेंगे, लेकिन झुकेंगे नहीं और उन्होंने जेल जाना पसंद किया। और पांच महीने बाद जो आदमी जेल से निकला, वो उस हेमंत सोरेन से बिल्कुल अलग था, जो जेल जाते समय ब्लू जैकेट में ईडी की गाड़ी से हाथ हिलाते दिखा था।
जेल से बाहर आनेवाला शख्स तो लंबे बालों और पकी सफेद दाढ़ी वाला कोई अलग ही शख्स था, जो कुछ-कुछ दिशोम गुरू शिबू सोरेन जैसा दिखता था। और दिखता भी क्यों नहीं आखिर वह शिबू सोरेन का ही तो अंश था। ये वो ट्रांसफॉर्मेशन था, जिसने हेमंत सोरेन को झारखंड की राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा बना दिया। गुरुजी अलग झारखंड के आंदोलन का चेहरा थे, हेमंत झारखंड की राजनीति का चेहरा बन गये।

प्रतीकों की राजनीति, ब्रांडिंग और इमेज बिल्डिंग का शुरुआत का श्रेय भले ही भाजपा और मोदी को जाता हो, लेकिन भाजपा का मुख्यमंत्री रहते ही रघुवर दास की इमेज खराब हो गयी। करोड़ों रुपये फूंक कर रघुवर दास ने हर खंभे और हर बैनर पर अपना फोटो तो लगवा दिया, लेकिन वे इमेज नहीं बना सके। सोशल मीडिया पर उनकी छवि एक गुस्सैल, अहंकारी, बदमिजाज और सत्ता के नशे में चूर व्यक्ति की बना दी गयी थी और सीएम रहते, पूरा प्रचार का तंत्र रहते न तो रघुवर दास खुद और न ही उनकी टीम और न ही पार्टी उनकी छवि बेहतर कर पायी।
2019 में अगर भाजपा सत्ता से बाहर हुई थी, तो कारण सिर्फ सीएनटी, पत्थरगढ़ी या धर्मांतरण रोकने का बिल और रघुवर दास की आदिवासी विरोधी छवि नहीं थी, बल्कि उनकी निजी इमेज भी इस कदर खराब हो चुकी थी कि उसका नुकसान बीजेपी को आजतक उठाना पड़ रहा है। इसके ठीक उलट जो हेमंत सोरेन भ्रष्टाचार के आरोप में घिरे थे, जांच एजेंसियों के निशाने पर थे, नियुक्तियों में धांधली के आरोपों से सरकार की साख पर बट्टा लग रहा था। पंकज मिश्रा जैसे लोग किरकिरी करा रहे थे। आज उन्हीं सोरेन की छवि एक महानायक की बनती जा रही है।
पिता की सेवा हो या जनता की सेवा। अखबारों के पन्ने हों, टीवी चैनल हों या सोशल मीडिया, हर तरफ हेमंत सोरन की तसवीरें छायी हैं। पगडंडियों पर लकुटि लिये. पत्थर पर पैर टिकाये, खेतों का जायजा लेते, ऑटो चलाते, फाइलें निबटाते हेमंत को देख लोग अब पुराने हेमंत सोरेन को भूल चुके हैं.
वो हेमंत सोरेन घनी मूछोंवाला एक मस्तमौला नौजवान था, जो चुनाव आयोग के लिफाफे के अंजाम से डर कर पूरे कुनबे के साथ छत्तीसगढ़ चला गया था। ये हेमंत का नया वर्जन है। ये हेमंत 2.0 है। ये छवि है, जो हेमंत सोरेन ने खुद बनायी है, अपने बूते। वरना आईपीआरडी, पीआर एक्सपर्ट, सोशल मीडिया टीम और तमाम टंट-घंट तो रघुवर दास के पास भी थे। और इनके रहते ही वे न सिर्फ अपना चुनाव हार गये थे बल्कि भाजपा को ऐसी हालत में पहुंचा गये कि 2019 में 25 सीटोंवाली बीजेपी 2024 में 21 पर आ गयी। और आनेवाला समय भी कुछ बेहतर होगा. इसके आसार भी नहीं हैं। हेमंत सोरेन आज जहां खड़े हैं, झारखंड की राजनीति में फिलहाल कोई उनके कद के आसपास भी नहीं दिख रहा।
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