इन दिनों दुष्यंत कुमार बहुत याद आते हैं
आपातकाल में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें बन गई थीं आंदोलनकारियों की आवाज़। पढ़िए वह अनुभव जब उनकी पंक्तियों से घबरा गई थी सत्ता।
दुष्यंत कुमार त्यागी (27 सितंबर 1931-30 दिसंबर 1975)

श्रीनिवास
कोई पचास वर्ष पहले दुष्यंत की ग़ज़लों के संकलन ‘साये में धूप’ का प्रकाशन हुआ था. तब उनकी गजलों के निशाने पर तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठान होता था; और आंदोलनकारियों की जुबान पर दुष्यंत की गजलें होती थीं. वे शासकों को चुभती थीं; और तय है कि आज के सत्ताधीशों को भी उतनी ही चुभती होंगी.
हम (+ कालेज, आंदोलन और जेल के साथी पंकज जी) करीब एक साल बाद जून ‘76 में जेल से बाहर निकले थे. कमलेश्वर जी (अब दिवंगत) साहित्यिक पत्रिका ‘कहानी’ के संपादक थे. उन्होंने नवंबर अंक में दुष्यंत को याद करते हुए उनकी लगभग सारी गजलें छाप दी थीन. वह पत्रिका हम जैसों के झोले में हमेशा रहती थी. क्यों, यह उनकी इस गजल से समझ में आ सकता है-
जो बज्म (महफ़िल) में आये, पर बोल नहीं पाये,
उन लोगों के हाथों में अब मेरी गजल होगी.
हम तब भी पुलिस से सतर्क, लगभग भूमिगत रहते थे. हमलोगों ने दुष्यंत कुमार की गजलों को पुस्तिका के रूप में छपवाने का निर्णय किया- ‘दुष्यंत कुमार की स्मृति में’ शीर्षक से. 1976 अमेरिका की आजादी का दो सौवां साल भी था. इस मौके पर अनेक पत्रिकाओं- कादंबिनी, साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि- में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पक्ष में अब्राहम लिंकन, जॉर्ज वाशिंगटन और थॉमस जेफरसन आदि के प्रसिद्ध कथन भी छपे थे. हमने दुष्यंत की गजलों के साथ ऐसे सारे कोटेशन डाल दिये. उल्लेखनीय है कि अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति जेफरसन व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रबल पैरोकार थे, साथ ही धर्म और राज्य के पूरी तरह से अलगाव के समर्थक भी. उनकी एक पंक्ति, जो हम लोगों को खास पसंद थी- ‘कभी-कभी थोड़ी बगावत करना अच्छी बात है…’
एक परिचित प्रेस वाले तैयार हो गये, उनको बता दिया कि यह सब दिल्ली-मुंबई की स्थापित पत्रिकाओं में छपा हुआ है.
कुछ दिन बाद वे बोले- सीआईडी वाले आये थे. पूछ रहे थे, यह कौन छपवा रहा है? हम नाम नहीं बताये, पर दिखा दिये कि यह सब तो पहले से छपा हुआ है. वे बोले- उनसे कह दीजिये कि एसडीओ से लिखित परमीशन ले लें. नहीं तो आप फेर में पड़ सकते हैं.
प्रेस मालिक ने हमसे कहा- आपलोग एसडीओ का परमीशन ले आइये, समझ ही रहे हैं, रिस्क है.
हमने ‘दुष्यंत कुमार की स्मृति समारोह समिति’ के नाम से आवेदन तैयार किया. कमेटी में जिस-तिस का नाम डाल दिया. दो कम पहचाने कार्यकर्ताओं को सारी सामग्री लेकर एसडीओ, बेतिया के पास भेजा. एसडीओ बोले- यहां नहीं होगा, इसे तो पटना भेजना होगा.
और हुआ यह कि कुछ दिन बाद प्रेस जाने पर पता चला कि वे सारी सामग्री जला चुके थे! यह प्रकरण उस समय लागू कठोर सेंसरशिप का ही नहीं, दुष्यंत जैसों की कलम से सत्ता के भय खाने का भी प्रमाण है! दुष्यंत को सलाम कि उनकी कलम आज भी निरंकुश सत्ताधारियों में खौफ पैदा करने में उतनी ही सक्षम है, जितनी पचास बरस पहले थी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
डिस्क्लेमर : ये लेखक के अपने विचार हैं। “जन-मन की बात” का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है।
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