November 22, 2025

भाजपा की उलझन : आजसू से मोहभंग या जयराम महतो से नयी आस?

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झारखंड में जातीय जनगणना की घोषणा के बाद भाजपा और आजसू के गठबंधन पर संकट मंडरा रहा है। क्या भाजपा अब जयराम महतो को नया सहयोगी बना सकती है?

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आनंद कुमार
Ranchi : केंद्र सरकार ने जिस दिन जातिगत जनगणना कराने की घोषणा की, उसी दिन से झारखंड की राजनीति में एक नयी बहस छिड़ गई है। बहस के केंद्र में ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) पार्टी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का गठबंधन है। चर्चाओं का बाजार गर्म है कि क्या यह गठबंधन भाजपा के लिए फायदेमंद रहा या इसके चलते उसे नुकसान हुआ? और यह भी सवाल उठ रहे हैं कि क्या अगले चुनावों में भाजपा और आजसू का गंठबंधन रहेगा या फिर भाजपा को जयराम महतो और जेएलकेएम के रूप में नया अलायंस पार्टनर मिलेगा।

2019 के विधानसभा चुनाव में सीटों के तालमेल के अभाव में आजसू प्रमुख सुदेश महतो ने अलग चुनाव लड़ा था और भाजपा को 10-12 सीटों पर हराने में बड़ी भूमिका निभाई थी। अगर ये सीटें भाजपा को मिल जातीं, तो पार्टी शायद सत्ता से बेदखल नहीं होती। इसके बावजूद 2024 में भाजपा ने आजसू से गठबंधन किया, लेकिन परिणाम वही हुआ जिसकी आशंका थी — दोनों पार्टियां डूबती नज़र आयीं। भाजपा 25 से 21 सीटों पर आ गयी और आजसू तीन से एक पर. यह इकलौती सीट भी तीन सौ से कम वोटों के अंतर से मिली।

आजसू पार्टी ने चुनाव बाद भाजपा पर आरोप लगाया कि उनके कार्यकर्ताओं ने पूरी ताकत से काम नहीं किया। भाजपा के भीतर भी यह चर्चा है कि यह गठबंधन अब उनके लिए लाभकारी नहीं रह गया है। जातीय जनगणना के फैसले के बाद सभी दल अपने-अपने जातीय समीकरणों को साधने में लग गए हैं। झारखंड में देखा जाए तो अनुसूचित जनजाति (एसटी) वोट का बड़ा हिस्सा झामुमो और इंडिया ब्लॉक के पक्ष में गया है। 2019 में एसटी के लिए आरक्षित 28 में से 26 सीटें यूपीए गठबंधन को मिली थीं। इस बार 27 मिली हैं। एकमात्र एसटी सीट जो भाजपा के पाले में गयी है, वह चंपई सोरेन ने डाली है, वरना इस बार एसटी सीटों का खाता बंद ही था। यह हालत तब है जब भाजपा ने चंपाई सोरेन, गीता कोड़ा, सीता सोरेन, लोबिन हेंब्रम जैसे कई बड़े आदिवासी नेताओं को अपने पाले में किया था, लेकिन फायदा कम हुआ, नुकसान ज्यादा।

भाजपा को अब यह समझ में आ गया है कि उसने रघुवर राज में आदिवासियों को इतना दूर कर दिया कि घुसपैठ और डेमोग्राफी चिल्ला-चिल्लाकर भाजपाइयों का गला बैठ गया लेकिन आदिवासियों के कानों पर जूं तक न रेंगी।

ऐसे में भाजपा की निगाहें अब ओबीसी विशेषकर कुर्मी (महतो) वोटबैंक पर टिक गयी हैं, जो कि आदिवासियों के बाद राज्य में दूसरा सबसे बड़ा सामाजिक समूह माना जाता है। वैसे झारखंड में जनसंख्या के लिहाज से तीन बड़ी ओबीसी जातियां हैं। इनमें वैश्य जिनमें तेली, सूंडी, बनिया आदि हैं, वह मोटे तौर पर भाजपा के साथ है। यादव वोटों का बड़ा हिस्सा विधानसभा में भाजपा के खिलाफ जाता है। जहां भाजपा के यादव विधायक हैं, वे यादवों के वोट से नहीं, भाजपा के कोर वोटों के चलते जीते हैं। रही कुड़मियों की बात, तो रामटहल चौधरी को छोड़ भाजपा के पास कभी कोई कुड़मी नेता नहीं रहा और न ही भाजपा ने इस तरफ ध्यान दिया। जेएमएम के कद्दावर नेता रहे और दो बार के सांसद शैलेंद्र महतो को पार्टी में लाकर और उनकी पत्नी आभा महतो को भाजपा ने तीन बार जमशेदपुर सीट से लोकसभा का टिकट देकर कुड़मियों को अपने पाले में करने की कोशिश जरूर की थी, लेकिन अटल-आडवाणी युग के अवसान के बाद महतो दंपति को पहले अर्जुन मुंडा और बाद में रघुवर दास ने किनारे लगा दिया। उनकी काट में जेएमएम से विद्युत महतो को लाया गया, लेकिन इसका फायदा भाजपा को नहीं केवल विद्युत महतो को ही हुआ। तीन बार सांसद बननेवाले विद्युत तीन चुनावों में बीजेपी को एक विधानसभा सीट तक नहीं दिला सके। रामटहल चौधरी को 75 साल में रिटायर कर दिया गया और भाजपा के पास आजसू पर निर्भर रहने के सिवा कोई चारा नहीं बचा। ऊपर से अर्जुन मुंडा ने कुड़िमयों को एसटी दर्जा देने की मांग पर बयान देकर उनकी नाराजगी अलग से मोल ले ली।

भाजपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव में आजसू से गठबंधन किया था, तकि कुर्मी वोट को साधा जा सकेगा। लेकिन हुआ इसका उलटा। 2019 में 12 सीटें लानेवाला एनडीए 9 सीटों पर सिमट गया और भाजपा 11 से 8 सीटों पर आ गयी।

खूंटी सीट से अर्जुन मुंडा बड़े अंतर से हार गए, जबकि 2019 में वह महज 1400 वोटों से जीत दर्ज कर पाए थे। फिर भी भाजपा ने सबक नहीं लिया। भाजपा लोकसभा की पांचों एसटी सीटें हार गयी। गिरिडीह की लोकसभा सीट भाजपा ने आजसू को दी थी, लेकिन विधानसभा के चुनाव में वहां के डुमरी और गोमिया विधानसभा क्षेत्रों में आजसू हार गई। दिलचस्प बात यह रही कि इन क्षेत्रों में जयराम महतो की पार्टी जेएलकेएम के उम्मीदवारों ने सेंधमारी कर दी।

विधानसभा चुनाव की बात करें तो झारखंड की 23–25 ऐसी सीटें हैं जहां महतो वोट निर्णायक हैं। यहीं जयराम महतो ने खेल कर दिया। जयराम महतो ने भले एक ही सीट जीती हो, लेकिन चुनाव के आंकड़े बता रहे हैं कि उन्होंने कम से कम दो दर्जन सीटों पर पर एनडीए का खेल बिगाड़ा। और कुड़मी वोटों के बंटवारे का फायदा झामुमो को मिला।

जयराम महतो की पार्टी को अपने पहले ही चुनाव में 10 लाख से अधिक वोट मिले। उनका वोट बैंक विशेषकर कुड़मी समुदाय तक सीमित रहा है। जयराम महतो ने कहा भी था कि सत्ता में भागीदारी के लिए यदि गठबंधन करना पड़े तो वे विचार कर सकते हैं। हालांकि चुनाव अभी बहुत दूर है। लेकिन अभी से ऐसे संकेत मिलने लगे हैं कि भाजपा अब आजसू को छोड़ जयराम महतो में नया पार्टनर तलाश सकती है।

भाजपा को महसूस हो रहा है कि कुड़मी वोट बैंक में अब जयराम महतो की पैठ गहरी हो चुकी है। भाजपा को यदि ओबीसी और सामान्य जातियों के साथ सत्ता में वापसी करनी है, तो उसे रणनीति में बदलाव करना होगा। शेड्यूल कास्ट वोट भी भाजपा से छिटक गये हैं। नेता प्रतिपक्ष अमर बाउरी तक चुनाव हार गये। चंदनकियारी, गिरिडीह, डुमरी, गोमिया, रामगढ़, सिल्ली, ईचागढ़ — इन सभी क्षेत्रों में भाजपा या आजसू को कामयाबी नहीं मिली।

कुल मिलाकर जातीय जनगणना की घोषणा के बाद झारखंड में सियासी संतुलन बदल रहा है। भाजपा एक बार फिर अपने गठबंधन समीकरणों की समीक्षा कर रही है, और आनेवाला समय भाजपा के साथ गठबंधन के लिहाज से सुदेश महतो के लिए आखिरी साबित हो सकता है।

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