झारखंड में जातिगत जनगणना का भूचाल : कुड़मी राजनीति की नयी करवट
डीलिस्टिंग, सरना धर्म कोड और ओबीसी उभार: किस दिशा में जाएगा झारखंड?

आनंद कुमार
Ranchi : जब पूरे देश में यह चर्चा थी कि पहलगाम की आतंकी घटना के बाद भारत पाकिस्तान के खिलाफ क्या कारवाई करेगा, क्या सेना पाकिस्तान में घुसकर हमला कर देगी—उसी वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट ने चुपचाप एक और बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक कर दी। और यह स्ट्राइक थी जातिगत जनगणना को मंजूरी देना। अब यह बात सुनने में भले ही टेक्निकल लगे लेकिन झारखंड जैसे राज्यों में इसका मतलब बहुत बड़ा है। झारखंड में यह सिर्फ एक आंकड़ा भर नहीं है, यह है सियासी भूचाल। खासकर कुड़मी महतो समाज के लिए यह फैसला एक तरह से नई उम्मीद लेकर आया है। अब सोचिए, यह जातिगत जनगणना इतनी बड़ी बात क्यों बन गई?झारखंड की राजनीति में महतो या कुड़मी जाति हमेशा से एक्टिव रही है और इनका दखल गिरिडीह, रांची, हजारीबाग, जमशेदपुर और धनबाद जैसे इलाकों में अच्छा खासा रहा है। चाईबासा और खूंटी जैसी एसटी रिजर्व सीटों पर भी यह वोटर बहुत मायने रखते हैं। फिर भी जब हम देखते हैं कि आज की तारीख में लोकसभा में इस समाज से सिर्फ दो सांसद हैं—चंद्र प्रकाश चौधरी जो गिरिडीह से लोकसभा के सांसद हैं और विद्युत वरण महतो जो जमशेदपुर सीट से—तो लगता है कुछ तो गड़बड़ है।
असल में, 1950 के बाद कभी जातिगत जनगणना ही नहीं हुई। मतलब सरकार के पास कोई पक्के आंकड़े ही नहीं हैं कि किस जाति की कितनी आबादी है। हालांकि 2013 में मनमोहन सिंह की सरकार ने एक एसईसीसी सर्वे कराया था यानी सामाजिक आर्थिक, जातीय जनगणना, लेकिन इसके आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किये गये। आर्थिक आंकड़े तो सार्वजनिक कर दिये गये थे, लेकिन जातीय आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं हुए।
तो इसका अर्थ यह था कि सरकार के पास यह कहने के लिए कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है कि भारत में किस जाति की आबादी कितनी है। तो सिर्फ अब अनुमान ही लगाए जाते हैं कि कौन सी जाति की संख्या कितनी है।
अब जैसे झारखंड को लें तो यहां कहा जाता है कि यहां ओबीसी की आबादी 45 से 55% के बीच है। लेकिन अगर उनकी राजनीतिक भागीदारी को देखें तो वो इस आंकड़े के आसपास कहीं नहीं पहुंचते हैं। बिहार में जब जातिगत गणना हुई तो पता चला कि वहां 63% ओबीसी हैं। इसके बाद झारखंड में भी लोगों ने पूछा कि जब हम इतने हैं तो सरकार और सत्ता में हम कहां हैं?
अब आते हैं महतो समाज की बात पर। महतो समाज के बड़े चेहरे हैं आज की तारीख में सुदेश महतो और जयराम महतो। दोनों को लगता है कि यह जनगणना उनके समाज के लिए और उनकी राजनीति के लिए गेम चेंजर बन सकती है। क्योंकि अगर सरकार के पास पक्के आंकड़े आ गए कि महतो समाज की संख्या ज्यादा है, तो फिर उन्हें आरक्षण, सरकारी नौकरियों और राजनीति में भी उसी हिसाब से जगह देनी पड़ेगी।
और बात यहीं नहीं रुकती। कुड़मी महतो समाज कई सालों से आदिवासी दर्जे की भी मांग करता आया है। अगर उनकी संख्या साबित हो गई तो इस मांग को और मजबूती मिलेगी।
अब जरा राजनीति की बात कर लेते हैं। कांग्रेस ने पहले ही चाल चल दी है—केशव महतो कमलेश को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। मतलब कांग्रेस भी इस वोट बैंक को अपने पाले में लाना चाहती है।
उधर, भारतीय जनता पार्टी एक्टिव तो है लेकिन उनके पास अभी कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो पूरे महतो समाज को अपनी तरफ खींच सके। इस बीच जयराम महतो तेजी से उभरते हुए नेता बनकर सामने आए हैं। हाल के चुनावों में उन्होंने अच्छा प्रदर्शन भी किया है और अब वे सिर्फ एक क्षेत्रीय नेता नहीं रहे, वे ओबीसी राजनीति का चेहरा बनते जा रहे हैं—कुड़मी राजनीति का फेस बनते जा रहे हैं।
दूसरी तरफ सुदेश महतो, जो कुड़मी राजनीति का पर्याय माने जाते थे, उनकी पकड़ अब थोड़ी ढीली होती दिखाई दे रही है।
और अब झारखंड की राजनीति में दो ध्रुव, दो पोल बनते दिखाई दे रहे हैं—एक तरफ आदिवासी पहचान की राजनीति है जहां मुद्दे हैं सरना धर्म कोड, डीलिस्टिंग और धर्मांतरण। दूसरी तरफ जाति, हक और हिस्सेदारी की राजनीति है, जहां महतो, वैश्य और यादव जैसे ओबीसी समूह अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं।
बीजेपी जहां डीलिस्टिंग का मुद्दा उठाकर धर्मांतरित आदिवासियों को आरक्षण से बाहर करने की मांग कर रही है, वहीं आदिवासी समाज अपने धर्म की मान्यता के लिए आंदोलित है। अब इन दोनों के बीच जातिगत जनगणना एक तीसरा और मजबूत मुद्दा बन गई है।
इस जनगणना से ओबीसी समाज को कॉन्फिडेंस मिलेगा। उन्हें लगेगा कि अब सरकार को हमारी बात सुननी पड़ेगी। और यह सिर्फ चुनाव का नहीं, बल्कि सत्ता में भागीदारी और पहचान का भी सवाल है।
ओबीसी समूहों—खास करके महतो, वैश्य और यादवों का समर्थन अब सभी प्रमुख दलों के लिए निर्णायक बन सकता है। जहां वैश्य समुदाय पारंपरिक रूप से भारतीय जनता पार्टी का समर्थन करता रहा है, वहीं महतो वोट बैंक झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ अब सुदेश महतो की आसू और जयराम महतो की जेलखेम के बीच बटा हुआ दिखता है।
जयराम महतो ने जहां एक नए नेतृत्व का दावा पेश किया है, वहीं सुदेश महतो की पकड़ अब धीरे-धीरे कमजोर पड़ती नजर आ रही है।
नगर निकाय के चुनाव से लेकर विधानसभा तक, कुड़मी महतो समुदाय के नेतृत्व की अब एक नई परिभाषा उभर कर सामने आ रही है। और सबकी नजर इस बात पर टिकी है कि जातिगत जनगणना के आंकड़े कब आते हैं, और उसके बाद झारखंड में कौन किसके साथ खड़ा होता है।
क्योंकि जातिगत जनगणना केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि झारखंड में सामाजिक न्याय और राजनीतिक शक्ति संतुलन का एक नया अध्याय साबित होने जा रही है।
इससे ना केवल महतो समुदाय को नया आत्मविश्वास मिलेगा बल्कि झारखंड की पूरी राजनीतिक संरचना में ओबीसी की दावेदारी का नया दौर भी शुरू होगा।
अगले कुछ साल झारखंड की राजनीति में जातीय पहचान बनाम आदिवासी अस्मिता की टकराहट को गहराएंगे और जातिगत जनगणना इसकी पृष्ठभूमि तैयार कर चुकी है।
ट्राइबल बनाम ओबीसी का समीकरण, सरना धर्म बनाम डीलिस्टिंग की बहस और नेतृत्व की नई लहर—यह सभी मिलकर झारखंड की राजनीति को एक नए युग में ले जाएंगे।
