Jharkhand Cabinet Decision : क्या अटल मोहल्ला क्लीनिक का नाम बदलने से भर से इलाज में भी सुधार हो जायेगा?
Jharkhand Cabinet Decision : हेमंत सरकार ने अटल मोहल्ला क्लीनिक का नाम बदलकर मदर टेरेसा एडवांस हेल्थ क्लिनिक कर दिया है। लेकिन क्या नाम बदलने से झारखंड की जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था बेहतर होगी? जानिए आंकड़ों और तथ्यों के साथ पूरी पड़ताल।
Jharkhand Cabinet Decision : मदर टेरेसा की जगह सिनगी देई या गुरुजी का नाम क्यों नहीं?

Jharkhand Cabinet Decision : मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की कैबिनेट ने कल यानी 24 जुलाई को एक फैसला लेकर अटल मोहल्ला क्लीनिक का नाम बदलकर अब इसे “मदर टेरेसा एडवांस हेल्थ क्लिनिक” कर दिया है। झारखंड के 140 मोहल्ला क्लिनिक अब नयी पहचान से संचालित होंगे। सरकार ने इसे मातृत्व, मानवता और सेवा की भावना के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है। कैबिनेट के इस फैसले के बाद कई लोगों ने जाना कि मोहल्ला में भी कोई सरकारी क्लीनिक होता है.
खैर नाम बदलने का दौर है, तो झारखंड अलग राज्य देनेवाले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बदले मदर टेरेसा का नाम रख दिया गया। मदर टेरेसा की सेवा भावना अनुकरणीय है, लेकिन थीं तो वे एक गोरी चमड़ी वाली मिशनरी, जिन्हें वेटिकन के पोप ने संत की उपाधि प्रदान की थी। नाम ही बदलना था तो किसी झारखंडी के नाम पर भी रखा जा सकता था। जैसे जेएमएम और कांग्रेस ने केंद्र सरकार से रातू रोड फ्लाई ओवर का नाम शिबू सोरेन के नाम पर रखने की मांग की थी, जो नहीं मानी गयी, तो
मोहल्ला क्लीनिक का नाम भी गुरुजी के नाम पर रखा जा सकता था। राज्य देनेवाले का नाम हटा था तो राज्य के लिए लड़नेवाले का नाम रख दिया जाता लेकिन मदर टेरेसा के नाम पर क्लीनिक का नाम रखना झारखंड की राजनीति में चर्च के प्रभाव को दिखाता है और यह संदेश भी बिल्कुल साफ है कि झारखंड में डीलिस्टिंग की मांग और आदिवासियों में सरना बनाम ईसाई और पेसा एक्ट को लागू करने को लेकर चल रही राजनीति में सरकार किसके साथ है। हेमंत सोरेन की सरकार का तंबू जिस कांग्रेस के बंबू पर खड़ा है, उसकी भी भूमिका इस फैसले में रही होगी, इससे भी इनकार नहीं कि.या जा सकता।
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अब अगर चाहें तो भाजपा वाले इसे सोनिया और राहुल गांधी के रोम कनेक्शन से जोड़ सकते हैं, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि भाजपा जिस तरह हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर वोट की राजनीति कर रही है और सफल हो रही है, उसी तरह हेमंत सोरेन और महागठबंधन ने भी झारखंड की सत्ता पर काबिज रहने का फॉर्मूला क्रैक कर लिया है। उन्होंने जिस तरह आदिवासी, मुसलिम समीकरण को साधा है और 1932 के खतियान और झारखंडी अस्मिता के नाम पर दलित और ओबीसी समाजों को भीतरी और बाहरी के खांचे में बांट दिया है, उससे उन्होंने भाजपा के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। आनेवाले समय में मुझे लगता नहीं कि भाजपा आसानी से इस चुनौती से पार पा सकेगी।
लेकिन ये तो सियासत की बात है। लेकिन क्या मोहल्ला क्लीनिक का नाम बदलने भर से वहां की स्थिति में बदलाव आ जायेगा। क्या डॉक्टरों और चिकित्साकर्मियों में मदर टेरेसा की तरह सेवा भावना आ जायेगी। क्या वहां ऑक्सीजन, ऑपरेशन और दूसरी सुविधाएं मिलने लगेंगी।
| ✳️ संकेतक | झारखंड | राष्ट्रीय औसत | स्थिति |
|---|---|---|---|
| मातृ मृत्यु दर (MMR) | ~56/100,000 | ~97/100,000 | बेहतर 👌 |
| शिशु मृत्यु दर (IMR) | ~27/1,000 | ~30–31/1,000 | बेहतर 👌 |
| पूर्ण टीकाकरण (%) | ~74.1% | ~76.6% | थोड़ा पीछे 👇 |
| कुपोषण stunting (%) | ~40% | ~35% | चिंताजनक 👎 |
| संस्थागत प्रसव (%) | ~61.9% | ~85% | काफी कम 🚩 |
| डॉक्टर अनुपात (WHO मानकों के अनुसार) | ~10,000 (कमी ~22,500) | पूर्ति स्तर पर नहीं | गहरी कमी 🚩 |
| जीवन प्रत्याशा | ~69.4 वर्ष | ~69.7 वर्ष | लगभग बराबर ✔️ |
आइये झारखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था की थोड़ी पड़ताल कर लेते हैं. और ये पड़ताल किसी सुनी सुनाई बात, किसी राजनीतिक दल के बयान या किसी अखबार के हवाले से नहीं है। सारी जानकारी सरकारी स्रोतों से ली गयी है। इनमें भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय की 2024-25 की रिपोर्ट शामिल है. राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण NFHS-5 की रिपोर्ट है, NITI Aayog का Health Index 2024 है और झारखंड स्वास्थ्य मिशन की वार्षिक रिपोर्ट 2024 के आंकड़ें हैं।
और ये आंकड़े कहते हैं कि झारखंड में प्रति 10 हजार आबादी पर डॉक्टरों की संख्या मात्र 3.2 है, जबकि राष्ट्रीय औसत है 7.6।
WHO कहता है कि प्रति एक हजार लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। मतलब सवा तीन करोड़ की आबादी से तुलना करें, तो झारखंड में करीब 22,500 डॉक्टरों की कमी है।

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सरकारी अस्पतालों में कई बार ’खटिया ही एम्बुलेंस बन जाती है’ की कहावत सच्चाई बनकर सामने आती है — मतलब सुविधाओं की भारी कमी और असमान सेवा वितरण। झरखंड में आपातकालीन चिकित्सा सेवाएं काफी सीमित हैं। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की 31 मार्च 2022 तक की NHM-MIS रिपोर्ट के अनुसार झारखंड में कुल 1970 एंबुलेंस अथवा मरीज परिवहन वाहन हैं, जिसमें केवल 337 Dial‑108 यानी इमरजेंसी रिस्पांस और बाकी 1,633 अन्य वाहन शामिल हैं। जबकि राष्ट्रीय मानक के मुताबिक, प्रति 1 लाख आबादी पर कम-से-कम एक बेसिक लाइफ सपोर्ट एंबुलेंस मौजूद होनी चाहिए।
यदि झारखंड की आबादी लगभग 3.2 करोड़ रखी जाए, तो इन वाहनों को जनसंख्या से विभाजित करने पर हमें एक लाख की आबादी पर केवल लगभग 0.6 से 0.7 एंबुलेंस मिलती हैं—जिसे तुलनात्मक विश्लेषण में अकसर 1.2 एंबुलेेस प्रति लाख माना जाता है। इसका आधार स्थानीय वितरण और सेवा उपयोग होता है। लेकिन यह संख्या झारखंड के साथ बने छत्तीसगढ़ 3.4 और उत्तराखंड 4.6 की तुलना में बहुत कम है।
इसका मतलब यह है कि अगर किसी मरीज को अचानक अस्पताल ले जाना हो, तो एंबुलेंस मिलने में देर या परेशानी हो सकती है—खासकर गांव, जंगल या दूर-दराज के इलाकों में। यही वजह है कि गंभीर बीमारियों या सड़क दुर्घटनाओं में समय पर इलाज न मिल पाने से जान जाने का खतरा बढ़ जाता है। हर बार जब सरकार बदलती है तो बड़ी संख्या में एंबुलेंस खरीदी जाती हैं। लेकिन उनका सही उपयोग नहीं होता। कुछ रखरखाव के अभाव में बेकार हो जाती हैं, और कुछ तो खरीदे जाने के बाद पड़े-पड़े ही सड़ जाती हैं।
छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के मुकाबले झारखंड
| मापदंड | झारखंड | छत्तीसगढ़ | उत्तराखंड |
|---|---|---|---|
| प्रति 10 हजार आबादी पर डॉक्टर | 3.2 | 5.1 | 6.7 |
| शिशु मृत्यु दर (IMR) | 29 | 36 | 24 |
| पूर्ण टीकाकरण | 62.4% | 75.2% | 78.4% |
| स्टंटेड बच्चे | 39.6% | 35.2% | 30.1% |
| मातृ मृत्यु दर (MMR) | 56 | 39 | 38 |
अगर हम झारखंड की मातृ मृत्यु दर की बात करें, तो यहां एक अच्छी खबर है।
2018-20 के आंकड़ों के अनुसार देश में हर साल करीब प्रति एक लाख प्रसव के दौरान 97 माताओं की जान चली जाती है। लेकिन 2020–22 तके झारखंड के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में एक लाख प्रसव के दौरान जान गंवानेवाली माताओं की संख्या सिर्फ 56 है।
यानि झारखंड ने पहले ही सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल (SDG) का टारगेट पूरा कर लिया — जो था 2030 तक MMR को 70 से नीचे लाना। बिलकुल, यह एक उपलब्धि है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये औसत है — सिमडेगा जैसे कई जिलों में आज भी महिलाओं को प्रसव के समय डॉक्टरी मदद नहीं मिल पाती। गांव पहाड़ों और जंगलों के बीच बसे हैं। अस्पताल दूर हैं, एंबुलेंस समय पर नहीं आती, और कभी-कभी इलाज शुरू होने से पहले ही ज़िंदगी हार जाती है। इसलिए ग्राउंड पर अब भी बहुत कुछ बेहतर करने की जरूरत है।

अब आते हैं शिशु मृत्यु दर के आंकड़ों पर। झारखंड के साथ बने छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड से तुलना करें तो झारखंड में जन्म लेनावाले प्रति एक हजार बच्चों में 29 की मौत जन्म के समय या तुरंत बाद हो जाती है। ये आंकड़ा उत्तराखंड में 24 और छत्तीसगढ़ में 36 है। NITI Aayog के State Health Index 2024 में झारखंड को “Poor Performer” की श्रेणी में रखा गया है – यानी सबसे खराब राज्यों में।
कुपोषण की बात करें, तो भारत सरकार द्वारा 2019 से 21 के बीच कराये गये पाचवें National Family Health Survey के आंकड़ें कहते हैं कि झारखंड में 42% बच्चे स्टंटेड हैं। यानी उनकी लंबाई उम्र के हिसाब से कम है। 29% बच्चे वेस्टेड हैं। यानी उनका वजन लंबाई के हिसाब से बहुत कम है।65% महिलाएं और 69% बच्चे एनीमिया से ग्रसित हैं। उनमें खून की कमी है।
क्या मोहल्ला क्लीनिक का नाम बदलने से ये आंकड़े बदल जाएंगे?
- 69% बच्चे एनीमिक (रक्त की कमी वाले) हैं
- 36% बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित हैं
- 64% महिलाएं भी एनीमिया की शिकार हैं
स्रोत: NFHS-5, झारखंड राज्य रिपोर्ट
जहां तक टीकाकरण की बात है, झारखंड में 62.4 प्रतिशत बच्चों को ही सभी आवश्यक टीके मिल पाते हैं, जबकि छत्तीसगढ़ में ये 75 फीसदी और उत्तराखंड में 78 परसेंट है। आदिवासी बहुल जिलों में पोलियो, डिप्थीरिया जैसी बीमारियों का टीकाकरण अधूरा है। इसके अलावा नॉन-कम्युनिकेबल डिजीज जैसे डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर, और कैंसर की पहचान गंभीर रूप से कम है, क्योंकि स्क्रीनिंग सिस्टम ही नहीं हैं। राज्य में मेडिकल कॉलेज और सुपर स्पेशियलिटी सुविधाएं सीमित हैं।

और फिर वो दो तसवीरें जो मैंने दो दिन पहले आपको दिखाई थीं… सिमडेगा के टोनिया कर्रादाइमर गांव में खटिया पर प्रसव के लिए जाती आदिवासी हेमंती देवी और साहिबगंज में आदिवासी लड़की की मौत के बाद, एंबुलेंस न मिलने पर परिवार को 10 किलोमीटर पैदल शव ले जाते परिजन।
तो क्या वाकई हमारी प्राथमिकता नाम बदलना है… या अस्पतालों, डॉक्टरों और एंबुलेंस की ज़मीन पर मौजूदगी?
मुझे कोई आपत्ति नहीं अगर आप मदर टेरेसा के नाम पर क्लिनिक रखें, बशर्ते वहां स्वास्थ्य सेवाएं हों।
मुझे कोई एतराज़ नहीं अगर सरकार आदिवासी अस्मिता की बात करे, बशर्ते वहां के बच्चे कुपोषण से ना मरें।
लेकिन जब नामकरण पर सियासत हो और मूलभूत सुविधाएं नदारद हों, तब सवाल पूछना बनता है।
तो एक बार ज़रूर पूछिए – क्या सिर्फ मोहल्ला क्लीनिकों पर लगा बोर्ड ही बदलेगा या झारखंड का बीमार हेल्थ सिस्टम भी बदलेगा?
स्रोत : ational Family Health Survey (NFHS-5), 2019-21
NITI Aayog Health Index, 2023
National Health Profile, MoHFW, Govt of India
National Sample Survey Office (NSSO), 75th Round
Sample Registration System (SRS), MMR Bulletin, 2022
WHO Hospital Bed Standards
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